Wednesday, January 1, 2020

लाशें बिकती हैं (कहानी)


मदन घर का दूसरा बेटा है और सबसे छोटा भी. बड़े भैया अभिजित से लगभग 12 साल का छोटा. मदन हर बात में अच्छा है. लेकिन भैया हमेशा उसे डांटते रहते हैं ताकि वो अच्छा बना रहे. घर में पापा, मम्मी और दादी सबका लाडला है. घर की छोटी-मोटी खरीदारियों की जिम्मेदारी उसपर ही है.




मदन बाज़ार से कुछ लाने गया था. लौटते वक्त अपनी सोच में बहुत मग्न था जैसे कोई गंभीर बात हो. जब घर पहुंचा तो बड़े भैया ने देख लिया, पूछा, “क्यों रे! आधा किलो आलू लाने में इतनी देर कैसे लगा दी? कहीं तमाशा देखने के लिए खड़ा हो गया था क्या?,” मदन को हंसी आ गयी. वो दांते निपोरते हुए बोला, “तमाशा देखने नहीं खड़ा हुआ था, कुछ अजीब चीज़ देखी आज, ना चाहते हुए भी मैं ठिठक गया,” भैया के माथे पर सिकुड़न आ गयी. उसके तरफ गौर से देखते हुए पूछे, “क्या?,” मदन का चेहरा थोड़ा गंभीर हो गया, उसने बताना शुरू किया, “यही चौराहे पर कुछ लाशें पड़ी हुई थी, बहुत भीड़ लगी थी.,” भैया सकते में आ गए, पूछा, “किसकी लाशें थी, कुछ पता चला क्या? उनके परिवार वालों को पता चला? पुलिस आई थी क्या?,” “उनका नाम तो पता नहीं चला ना ही उनका परिवार, पुलिस के नाम पर एक हवालदार ही वहाँ था. और अजीब बात ये थी भैया की एक आदमी बैठ कर उन लाशों की बोली लगा रहा था और लोग खरीद भी रहे थें,” मदन ने जवाब दिया. भैया बौखला से गए, बोलें, “क्या बात करता है. कोई लाशें क्यों खरीदेगा और बेचेगा, और वो हवालदार कुछ नहीं बोल रहा था क्या?,” मदन का चेहरा और गंभीर हो गया, उसने जवाब दिया, “मुझे क्या पता! वो शायद पका कर खाने के लिए खरीद रहे होंगे, और वो हवालदार तो खुद भी खरीद रहा था वो क्यों रोकने से रहा,” भैया ने लगभग झिड़कते हुए पूछा, “पागल है क्या? बकवास किये जा रहा है. इंसान भी इंसान को खाते हैं भला?,” मदन थोड़ा मुस्कराया और बड़ी मासूमियत से जवाब दिया, “मैंने कब कहा की वो लाशें इंसानों की थीं, वो तो मछलियों की लाशें थीं,” भैया बिल्कुल अवाक् रह गए और जड़ हो गए, कुछ पल के बाद चेतना आई. उनका गुस्सा सातवें आसमान पर पहुँच गया. कुर्सी से टिका कर रखी हुई छड़ी उठा कर मदन की तरफ लपकते हुए, गुस्से से चिल्लाए, “कमबख्त बेवकूफ समझता है? ठहर तेरी खैर लेता हूँ.,” मदन पहले से ही सावधान था, आलू की थैली एक ओर पटक कर रफूचक्कर हो गया. अब वो शाम को ही घर लौटेगा. - जय वर्धन आदित्य





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