Wednesday, January 1, 2020

प्रेम विवाह (लेख)

प्यार भगवान की दी हुई एक पवित्र भावना है, लेकिन इस भावना के बारे में बहुत सारी बातें कही-सुनी गईं हैं. भगवान् ने सिर्फ इंसान को बनाया था, जो की सभी जीवों से ज्यादा बुद्धिमान और सभ्य है. लेकिन इंसान ने अपनी अलग ही पहचान बना ली. मानव के विकास के दौरान, जीवन को सुचारू और अनुशासित रूप से चलाने के लिए व्यवस्थाएं विकसित की गईं. बाद में वे व्यवस्थाएं मत, धर्म और सम्प्रदाय में ढलती चली गईं. मानव, मानव न रहकर धर्म और जाती के नाम से जाना जाने लगा. इस भेदभाव ने इतना बड़ा रूप ले लिया कि एक दुसरे से नफरत करने और मारने तक से भी गुरेज नहीं किया गया, फिर भी वर्तमान समय में हम सभी मिलकर रहा करते हैं. छोटी-मोटी घटनाएँ घट जाती हैं लेकिन ये पूर्व हुई घटनाओं जैसी नृशंस नहीं हैं.


अब मुख्य बिंदु पर आते हैं, इन भेदभावों के बीच प्रेम विवाह का चलन भी शुरू हुआ, वैसे ये समाज में पूरी तरह से जोर नहीं पकड़ पाया है. लोगों की मानसिकता, धर्म और जाती पर ही आकर अपने छोटेपन का सबूत दे देती है. अगर कोई धर्म परिवर्तन करवाने के लिए, झूठे प्रेम का नाटक कर विवाह करे तो वो गलत है. लेकिन अगर प्रेम सच्चा है तो हमें आपत्ति नहीं होनी चाहिए. प्रेम विवाह ज़्यादातर विजातीय होते हैं और समाज के टुकड़े-टुकड़े हो चुके व्यवस्थाओं को चुनौती दे देते हैं. अपनी संस्कृति और समाज के दंभ में लोग मानवता को भूल जाते हैं. अपने अस्तित्व को लेकर चिंतित हो उठते हैं. संकीर्ण मानसिकता वालों को हम लाख कोशिशों के बाद भी नहीं समझा सकते. ठीक उसी प्रकार जैसे एक बच्चा अपने खिलौने की ज़िद पर अड़ जाता है और उसे किसी भी तर्क से नहीं समझाया जा सकता है. 

तर्क-वितर्क की बात करें तो सोच में काफी विरोधाभास देखने को मिलेंगे. कई लोग पारम्परिक विवाह को महत्त्व देते हैं और श्रेष्ठ बताते हैं, दूसरी ओर कुछ लोग प्रेम विवाह के फायदे भी गिनाते हैं. लेकिन सबसे बड़ी विडंबना सोच की है. पारंपरिक विवाह को श्रेष्ठ बताते हुए कहा जाता है की ये सबकी सहमती से  होता है और एक ही तरह के समाज में संपन्न होने के  कारण कोई मतभेद नहीं रहता है. नई बहू, पति के घर में सामंजस्य बिठाती है और अच्छे से परिवार को संभालती है. वहीं प्रेम विवाह में शायद ही घरवालों की सहमती हो पाती है. शादी के बाद व्यवहार में अंतर आने पर पति-पत्नी में मतभेद पैदा हो जाते हैं और तलाक लेने तक की स्थिति पैदा हो जाती है.

अब इन दोनों बिन्दुओं पर रौशनी डालते हैं. शादी का मतलब क्या होता है? शादी का मतलब एक जोड़ा जीवनभर साथ रहने के लिए वचनबद्ध होता है और एक व्यवस्था के तहत अपने साथी के आलावा किसी और की तरफ आकर्षित नहीं हो सकता है. शादी कैसी भी हो हमारी समझदारी और वफ़ादारी ही किसी भी शादी को टिकाए रखती है. इसमें कोई ज़रूरी नहीं की वो प्रेम विवाह है या जातिगत. बहुत सारे रिश्तों की मनाही, जाती और धर्म को आधार बनाकर कर दी जाती है, जिसके कारण ना जाने कितनी अच्छी जोड़ियाँ को अलग होना पड़ता है, और कई जोड़ियाँ भाग कर शादी कर लेते हैं. जिसके कारण उन्हें उचित सम्मान नहीं मिल पाता है. 

उत्तर भारत में ज्यादातर बहुएँ घर में आते ही चूल्हा-चौका अलग कर लेती हैं. अगर जातिगत विवाह इतना ही अच्छा होता तो तो ऐसा नहीं होना चाहिए था. परंपरागत शादी में, आपस में जन्म-जन्मान्तर के रिश्ते  में बंधने वाले जोड़ों को ये भी पता नहीं होता की उसका साथी कैसा होगा. उसका स्वभाव कैसा है, उसे क्या अच्छा लगता है क्या बुरा. अगर साथी अच्छा निकला तो ठीक है वर्ना पूरी ज़िन्दगी एक दुसरे को झेलने के अलावा और कोई चारा नहीं रह जाता. प्रेम विवाह में युगल को एक दुसरे की पहचान होती है. पसंद, नापसंद, स्वभाव का पता होता है. प्रेम विवाह एक जातिगत विवाह से कहीं ज्यादा अच्छा विकल्प है. झगड़े और मतभेद हर रिश्ते में होते हैं लेकिन मनपसंद जीवनसाथी को पाकर युगल हमेशा खुश रहते हैं. तलाक और झगड़े हर तरह के विवाह में होते हैं. लेकिन अगर विवेक और समझदारी हो तो किसी भी तरह की परिस्थिति में हम एक दुसरे को संभाल सकते हैं, खुशहाल रह सकते हैं. 

- जय वर्धन आदित्य 

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