Saturday, January 4, 2020
आज़ादी (कविता)
मुझमें पंख लगने
दो,
इन हरे घावों को
भरने दो,
जिस बात की चाह
थी मुझे,
इस आसमान को छूने
की,
अब मुझे उसे छूने
दो,
मुझमें पंख लगने
दो,
बचपन में जिस
ख्वाहिश के पौधे को,
औरों ने पाँव तले
कुचल दिया,
उन ख्वाहिशों में
अंकुर होने दो,
मुझमें पंख लगने
दो,
जिन आँखों में
कभी आंसू ही छलकते थे,
उन आँखों में
ख़ुशी की चमक दमकने दो,
जो होठ कभी
रोआंसे होकर सूखे थे,
उन होठों से अब
तो मुस्कान बिखरने दो,
मुझे अब हंसने
दो,
मुझमें पंख लगने
दो,
बचपन की हिरासत
से,
नवयौवन की आज़ादी
मुझे जीने दो,
मुझे टहलने दो,
मुझे उछलने दो,
मुझे चीखने दो और
चिल्लाने दो,
ज़िन्दगी ने दस्तक
दी है,
अब तो जीने दो,
मुझमें पंख लगने
दो,
मन में सुगबुगाहट
है,
हद के पार तक
झाँकने की,
कुछ खुद से समझने
और जानने की,
अब तो मुझे
दुनिया देखने दो,
मुझमें पंख लगने
दो,
अब चलना कौन
चाहता है,
अब दौड़ना कौन
चाहता है,
मुझे तो अब उड़ना
है, मुझे उड़ने दो,
मुझमें पंख लगने
दो.
- जय वर्धन आदित्य
लेखक की कलम से
जीवन एक रंगमंच (स्टेज) की तरह है. अपनी-अपनी भूमिका (रोल) निभाकर, सबके दिलों
में जगह बनाकर इस जीवन के रंगमंच से उतर जाना है. थोड़े वक़्त के लिए लोग आते हैं और
उसी थोड़े वक़्त में पता नहीं लोगों को नफरत, गुस्सा, नाराज़गी वगैरह दिखाने का वक्त
कैसे मिल जाता है. लोगों के लिए मन में इज्ज़त, प्यार, दोस्ती, जिम्मेदारी जैसी
चीज़ें भी मौजूद हैं. अपने जीवन को अच्छी भावनाओं और व्यवहार से खुशहाल और खुबसूरत
बनाएं. अगले पल ना जाने क्या हो, हरेक पल को खुशनुमा बनाते हुए अपनी भूमिका को
निभाते जाएँ.
आप सभी का प्यार मिलते रहे, इसकी उम्मीद करता हूँ. आप सबका शुभचिंतक, दोस्त और
भाई.
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